मंगलवार, 1 दिसंबर 2020

संभल ए ज़िंदगी!



उलझती ज़िंदगी में कुछ सुलझते चंद लम्हे हों

कि शाम-ए-ग़म की तन्हाई के पल दो पल तो रोशन हों। 

अभी तो मोड़ आने हैं कई पतझड़ भरे पथ में, 

संभल ए ज़िंदगी यूँ कि तेरा तू ही सहारा हो। 

न कोई पहले आय था न कोई आएगा कल भी। 

तू लिख यूँ दास्ताँ अपनी कि स्याही खुद गवाही हो। 

तेरे सपनों के टुकड़े भी न जाएँ बेवजह यूँ हीं, 

इन्हीं के ढ़ेर पर जब तक खड़ा फिर इक मकाँ न हों।

                                                                       -अनु मिश्र