उलझती ज़िंदगी में कुछ सुलझते चंद लम्हे हों
कि शाम-ए-ग़म की तन्हाई के पल दो पल तो रोशन हों।
अभी तो मोड़ आने हैं कई पतझड़ भरे पथ में,
संभल ए ज़िंदगी यूँ कि तेरा तू ही सहारा हो।
न कोई पहले आय था न कोई आएगा कल भी।
तू लिख यूँ दास्ताँ अपनी कि स्याही खुद गवाही हो।
तेरे सपनों के टुकड़े भी न जाएँ बेवजह यूँ हीं,
इन्हीं के ढ़ेर पर जब तक खड़ा फिर इक मकाँ न हों।
-अनु मिश्र
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें