गुरुवार, 10 अप्रैल 2025

आज फिर एक शाम आई तनहा




आज फिर एक शाम आई तनहा,

आज फिर हमने दिल को समझाया।

हक़ीक़त होना हर ख़्वाब का नहीं ज़रूरी, 

कुछ सपने होते हैं बस यूँ ही बेवजह- बेजां।

वक्त की मार के मारे हम ही तो नहीं हैं,

कई उम्मीद के दिए इस अंधेरे से हैं गुज़रे। 

बात ये नहीं है कि हर बार टूटी है उम्मीद मेरी,

बात ये है कि फिर भी टूट के ये थमी है यूँही। 

जानते हैं नहीं सबके नसीब में लाज़मी चाँद होना,

फलक पर एक सितारा मेरे वास्ते भी चमकता होगा। 

मेरी हर आरज़ू पूरी हो ये ज़रूरी तो नहीं, 

मगर मुँह मोड़ लूँ हसरतों से मैं क्यूँ ही । 


अंधेरा वक्त का एक दर्द बहुत है गहरा,

सवेरा दर्द के इस मर्ज़ की दवा खूबसूरत। 

मुझे भी दर्द से कहाँ हैं कोई शिकवा अब,

मुझे इस मर्ज़ का मलहम रास आएगा,

अंधेरा भी छटेगा और कल भी होगा हसीं,

मेरी उम्मीद का दिया न बुझा, न बुझ पाएगा।

- अन्नु मिश्र

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें