मुसाफ़िर
मैं भटकता मुसाफ़िर मंजिल की तालाश में दर दर,
न कोई ओर दिखता है न कोई छोड़ दिखता है।
इधर भी रास्ता तनहा उधर भी है अकेलापन,
यहाँ की शाम बोझिल है वहाँ हर रात अंधेरापन।
मेरे तकदीर की कोरी पटल पर एक स्याही है,…
वही श्यामल वही काली आमावस की लाली है।
मुकम्मल हो मुकद्दर हर मुसाफ़िर का नहीं वाज़िब,
कहीं बस रास्ते ही हैं मुकर्रर चलने को तनहा।
कहीं मंजिल भी है जो राह को पहचान देती हैं,
कहीं राही भी हैं जो चल रहें पहचान पाने को।
मेरे इन रास्तों को शायद नहीं दरकार मंजिल की,
या मंजिल ही नहीं मेरे सफर की अबतलक कोई।
कहीं ऐसा न हो इन रास्तों में ही हो बसर मेरा,
-अनु मिश्र....
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