दो लब्ज़ की बातें, कुछ प्यार के क़िस्से
थी ज़िंदगी उलझी, इस दो जहां में ही...
न सोचते थे हम, कि ज़िंदगी क्या है,
बस ख़्वाहिशों के घर में रहते थे सुकून से।
उड़ान भरते थे, सपनों की ऊँची सी,
अरमान रखते थे इठलाती तितली सी
एक मोड़ आया यूँ, बन कर तूफ़ान सा,
उजड़ा घरोंदा यूँ, मिट्टी के टीले सा।
ये ख़्वाहिशें, सपनें सब ख़ाक हो गए,
इठलाती तितली के अरमान जल गए
अब सोचते हैं हम कि ज़िंदगी क्या है,
अब जानते हैं हम दो लब्ज़ झूठे हैं
न दिल मचलता है न क़िस्से होते हैं,
अब रात दिन हम बस "सच" में जीते हैं...
अब रात दिन हम बस "सच" में जीते हैं।
- अन्नु मिश्र
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