ज़िंदगी की समय
तालिका में न जाने कितनी शामें आईं,
रेत की तरह फिसलते
वक्त की चाल में यूँ मशगूल और मसरूफ़ हुए लम्हें मेरे,
कि पर्दानशीं रहा
शाम का हर मंजर।
आज ठहरे हुए पलों की
खिड़कियों से,
दीदार हुआ है उस शाम
का,
जो सराबोर थी
दरख़्तों से झाँकती किरणों की आभा से,
इस पल का मंजर हर
क़ीमती लफ़्ज़ की परिधि से बाहर है,
इसका स्पर्श बस यूँ
ही जैसे रेत में मिली अबरक, फूल में सुवासित चंदन.........
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