
क्या लिखूँ ऐसा जो समझा दे कि दि
क्या कहूँ ऐसा जो बतला दे कि मन
काटती है रात की ख़ामोश सी तनहा
झाँकती है क्यों मुझे अनजान सी
कुछ तो है अटका सा जो खींचता है
कुछ तो है भटका सा जो चीख़ता है
मैं नहीं हूँ मुझमें ही, विस्मृ
स्तब्ध सी निशब्द मैं, निष्प्राण
-अन्नु मिश्र