शनिवार, 10 सितंबर 2022

क्या लिखूँ













क्या लिखूँ ऐसा जो समझा दे कि दि में क्या छुपा,

क्या कहूँ ऐसा जो बतला दे कि मन है क्यों डरा।

काटती है रात की ख़ामोश सी तनहाइयाँ,

झाँकती है क्यों मुझे अनजान सी परछाइयाँ?

कुछ तो है अटका सा जो खींचता है मन की डोर,

कुछ तो है भटका सा जो चीख़ता है मन को तोड़।

मैं नहीं हूँ मुझमें हीविस्मृ सी खड़ी वीरान में,

स्तब्ध सी निशब्द मैं, निष्प्राण सी इस प्राण में।।


-अन्नु मिश्र


जो दिल को चुभ रहा है वो नज़र में क्यों नहीं आता














जो दिल को चुभ रहा है वो,

नज़र में क्यों नहीं आता?

है बंधन ग़र ये पल भर का 

तो क्यों फिर टूट नहीं जाता?

ये आते-जाते मौसम सी, 

वफ़ाओं की रवानगी,

कशिश सी खींचती है जो,

कसक बन जाती है दिल की

अभी थे साये में जिनके,

गुज़रते आते जाते पल,

वो साया हट रहा तो फिर,

ये संग क्यों छूट नहीं जाता

जो दिल को चुभ रहा है वो,

 नज़र में क्यों नहीं आता?

-अनु मिश्र

हम दोस्त ही अच्छे थे

 














 यारहम दोस्त ही अच्छे थे

हम तुम कुछ क़िस्से बुनते तो थे,

संग चाय की चुस्की के हंसते तो थे 

 यारहम दोस्त ही अच्छे थे। 


मेरी अल्हड़ सी अठखेलियों को

मेरी बेतुकी बातों को 

मेरे अनबुझे ज़स्बातों को 

बिन कहे तुम समझते तो थे।

 यारहम दोस्त ही अच्छे थे।


कभी दिन में कभी रातों को 

मेरी ज़िद भरी मुलाक़ातों को,

बिन माँगी हर मुरादों को 

तुम पूरा करते तो थे। 

 यारहम दोस्त ही अच्छे थे।


अहसास जो बदल गए मेरे 

अंदाज़ बदल लिए तुमने,

अब कही हुई बातें भी

तुम्हें समझ  आती हैं।

मेरी ज़िद भरी मुलाक़ातें भी 

तुम्हें अब नहीं भाती है,

होकर भी हम पास,

अब पास नहीं हैं

कहते थे तुम हम हैं ख़ास,

पर हम ख़ास नहीं हैं।

बिन वादे भी हम दोनों

कितने सच्चे थे।

है यारहम दोस्त ही अच्छे थे।


-अन्नू मिश्र


शुक्रवार, 9 सितंबर 2022

किस डगर पर




ये चलते चलते किस डगर पर 

राहें लाईं है हमें

जहां है शून्यता सी प्रतिपल 

हृदय की भावनाओं में।

  खिलती मुस्कुराहट है 

 कोई दुःख पिघलता है

 मन की वेदना संवेदना को 

आह मिलता है।

हो तुम भी और मैं भी हूँ,

नहीं किरदार बदले हैं

कहानी है वही अब भी,

 कोई दृश्य पलटे हैं।

मगर तुम भी कहीं गुम हो

हूँ खोई-खोई सी मैं भी,

निगाहें फेरते हो तुम

नज़र तकती नहीं मैं भी।

 कोई बोल हिलते हैं

 कोई शब्द मिलता है,

ये अपरिचित मौन 

इक नया सा भाव गढ़ता है।

मिलन की इस सघनता में,

विरह की है विकलता क्यों?

जो मंजिल एक है अपनी

किनारे दो तरफ़ है क्यों….?

-अन्नु मिश्र

न चाहो उस भरोसे को

 चाहो उस भरोसे को जो दिल को तोड़ देता है,

 मानो उन कसीदों को जो सच को मोड़ देता है।

नहीं मुमकिन हमेशा वक़्त का किस्मत के संग होना,


यहाँ हर छोर मंज़िल का ठिकाना मोड़ देता है।


न चाहो उन निगाहों को जो तुम पर रुक नहीं सकती,


न माँगों उस मोहब्बत को जो दो पल संग नहीं चलती।


पता न दो उम्मीदों को कभी दिल से गुजरने का,


ये दुनिया आंक़िलों की है, ये दिल को सुन नहीं सकती।


  • अन्नु मिश्र