ये चलते चलते किस डगर पर
राहें लाईं है हमें
जहां है शून्यता सी प्रतिपल
हृदय की भावनाओं में।
न खिलती मुस्कुराहट है
न कोई दुःख पिघलता है
न मन की वेदना संवेदना को
आह मिलता है।
हो तुम भी और मैं भी हूँ,
नहीं किरदार बदले हैं
कहानी है वही अब भी,
न कोई दृश्य पलटे हैं।
मगर तुम भी कहीं गुम हो,
हूँ खोई-खोई सी मैं भी,
निगाहें फेरते हो तुम
नज़र तकती नहीं मैं भी।
न कोई बोल हिलते हैं
न कोई शब्द मिलता है,
ये अपरिचित मौन
इक नया सा भाव गढ़ता है।
मिलन की इस सघनता में,
विरह की है विकलता क्यों?
जो मंजिल एक है अपनी
किनारे दो तरफ़ है क्यों….?
-अन्नु मिश्र
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