मंगलवार, 1 दिसंबर 2020

संभल ए ज़िंदगी!



उलझती ज़िंदगी में कुछ सुलझते चंद लम्हे हों

कि शाम-ए-ग़म की तन्हाई के पल दो पल तो रोशन हों। 

अभी तो मोड़ आने हैं कई पतझड़ भरे पथ में, 

संभल ए ज़िंदगी यूँ कि तेरा तू ही सहारा हो। 

न कोई पहले आय था न कोई आएगा कल भी। 

तू लिख यूँ दास्ताँ अपनी कि स्याही खुद गवाही हो। 

तेरे सपनों के टुकड़े भी न जाएँ बेवजह यूँ हीं, 

इन्हीं के ढ़ेर पर जब तक खड़ा फिर इक मकाँ न हों।

                                                                       -अनु मिश्र

रविवार, 20 सितंबर 2020

मंजिलें

 




मंजिलें...................

सभी की हैं अपनी-अपनी,

किसी की तय हैं तो कोई तय कर रहा है,

पर मंजिलें सभी की हैं अपनी-अपनी।

रास्ते.....

बदलते हैं, सिमटते हैं, फैलते हैं,

पर चलते रहते हैं मंजिल की तलाश में,

हर मोड पर भरमाते हैं कुछ रास्ते,

मंजिलों का आकार लेकर,

राही को रोकते हैं, आगे जाने पर टोकते हैं,

थामते हैं अपनी बाहों की शिकंज में,

अपने आगोश में मंजिलों का रूप लेकर,

राही.......

जो मुसाफिर नहीं है,

छलावा मंजिलों पर रुकना उसका मुनासिब नहीं है,

वो तोडता है बंधनों को, छोडता है बाहों को,

बढता है उस मोड से आगे उन रास्तों पर,

जो केवल रास्ते हैं, मंजिल नहीं है,

चलता रहता है अपनी मंजिल की तलाश में,

क्योंकि...

मंजिलें सभी की हैं अपनी-अपनी,

किसी की तय है, तो कोई तय कर रहा है....


-अन्नु मिश्र 

शनिवार, 19 सितंबर 2020

तुम कब तक साथ निभाओगे



तुम कब तक साथ निभाओगे,

तुम कैसे प्यार जताओगे,

न अब तक कोई थाम सका,

न अब तक कोई जान सका,

न अब तक कोइ मान सका,

मेरा अपना, मुझको अपना।

मेरा सपना सब व्यर्थ रहा,

सब टूटा मुझसे सब छूटा,

न पाया कुछ सब कुछ खाया,

न मूल बचा न ब्याज रहा,

सुर भूले बेसुर साज रहा,

तुम कौन सा राग सजाओगे,

क्या कह मुझको मुस्काओगे,

तुम कैसे साथ निभाओगे।

राहें मंजिल सब धुंधली सी,

रुत पतझड मेरे जीवन की,

न कोई आस - उम्मीद बची,

बस रहा अंधेरा तन्हाई,

तुम कैसे दीप जलाओगे,

क्या कह मुझको बहलाओगे,

संग मेरे रुक नहीं पाओगे,

तुम कब तक साथ निभाओगे।

-अनु मिश्र 

गिर कर चलना सीखा मैंने




गिर कर चलना सीखा मैंने,

खोकर पाना सीखा मैंने,

भावी सुख के झूठे भ्रम में,

हालतों के हर एक श्रम में,

आरोही - अवरोही क्रम में,

जो-जो सिखलाया तूने

जीवन वो-वो सीखा मैंने,

गिर कर चलना सीखा मैंने।

ग़म की आँधी, दुःख के बादल,

गरजे बरसे चले गए सब,

तूफ़ानी मौसम से लड़कर,

अंगारों के पथ पर चलकर,

जीवन की ही डोर पकड कर,

फिर से संभलना सीखा मैंने,

जो जो सिखलाया तूने

जीवन वो-वो सीखा मैंने

गिर कर चलना सीखा मैंने।

 

-अनु मिश्र

 

एक खुबसूरत शाम

 


ज़िंदगी की समय तालिका में न जाने कितनी शामें आईं,

रेत की तरह फिसलते वक्त की चाल में यूँ मशगूल और मसरूफ़ हुए लम्हें मेरे,

कि पर्दानशीं रहा शाम का हर मंजर।

आज ठहरे हुए पलों की खिड़कियों से,

दीदार हुआ है उस शाम का,

जो सराबोर थी दरख़्तों से झाँकती किरणों की आभा से,

इस पल का मंजर हर क़ीमती लफ़्ज़ की परिधि से बाहर है,

इसका स्पर्श बस यूँ ही जैसे रेत में मिली अबरक, फूल में सुवासित चंदन.........

एक कमी सी है

 

 

   

ज़िंदगी चल तो रही है

पर एक कमी सी है,

कुछ खो गया है शायद

तलाशते हुए तुम को

अपनी राहों में

या फिर भूल गई हूँ

तुम्हारी मुस्कुराहट का इंतज़ार करते-करते

वो जो एक कमी सी है,

ख़ाली सा है अंदर-अंदर,

क्यों याद नहीं है इस याद में

कि कब देखा था आख़िरी बार

तुमने प्यार से,

कब बनी थी प्यार की खूबसूरत तस्वीर

तुम्हारी आँखों में,

जिसका एहसास तो अब भी है,

पर अस्तित्व कुछ धुंधला गया है,

शायद अरसा हो गया चाहत कि इस बुत से

धूल को साफ़ किए हुए,

वो जो अंदर टूटा सा लग रहा था

दिखने लगा है अब आइने में

और इन किताबों के पन्नों से झाँकती हुई

लम्हों की रोशनी में,

कि खुद को खो दिया है शायद

तुमको अपना बनाने में

और अब जब तुम तुम नहीं हो

न जाने क्यों मैं मैं नहीं बन पा रही हूँ…...

 

-अन्नु मिश्र

शुक्रवार, 29 मई 2020

दुनिया में हर किसी को




Sometimes Silence – Midwest Fantasy Writes

दो पल सुकुं की साँसे 
कुछ हसरतों के मेले 
होता नहीं मयस्सर दुनिया में हर किसी को। 

कुछ चाहतों की बातें 
कुछ सर्दियों की रातें 
बनता नहीं मुक्द्दर दुनिया में हर किसी का।

कुछ ख़्वाहिशों की गर्मी 
कुछ राहतों की नर्मी
होती नहीं मुनासिब दुनिया में हर किसी को। 

नाबाद सी मोहब्बत 
बेदाग सी कहानी 
होती नहीं मुकम्मल दुनिया में हर किसी को। 


     - अन्नु मिश्र 

मंगलवार, 12 मई 2020

मुसाफ़िर

मुसाफ़िर




मैं भटकता मुसाफ़िर मंजिल की तालाश में दर दर,
न कोई ओर दिखता है न कोई छोड़ दिखता है।
इधर भी रास्ता तनहा उधर भी है अकेलापन,
यहाँ की शाम बोझिल है वहाँ हर रात अंधेरापन।
मेरे तकदीर की कोरी पटल पर एक स्याही है,…
वही श्यामल वही काली आमावस की लाली है।
मुकम्मल हो मुकद्दर हर मुसाफ़िर का नहीं वाज़िब,
कहीं बस रास्ते ही हैं मुकर्रर चलने को तनहा।
कहीं मंजिल भी है जो राह को पहचान देती हैं,
कहीं राही भी हैं जो चल रहें पहचान पाने को।
मेरे इन रास्तों को शायद नहीं दरकार मंजिल की,
या मंजिल ही नहीं मेरे सफर की अबतलक कोई।
कहीं ऐसा न हो इन रास्तों में ही हो बसर मेरा,
न मिल सकी जो अभी तक वो होना लाजिमी न हो।

                                                                 -अनु मिश्र....